ग़ाज़ियाबाद : बृजेश श्रीवास्तव। भारत में पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, जो समाज में सच्चाई और जवाबदेही सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण कार्य करती है। हालाँकि, हाल के वर्षों में पत्रकारों पर बढ़ते हमलों और दुर्व्यवहार की घटनाओं ने इस स्तंभ की नींव को गंभीर रूप से कमजोर कर दिया है। गाजियाबाद की महिला पत्रकार अपूर्वा चौधरी का मामला इसका एक जीता-जागता उदाहरण है, जिसने पुलिस प्रशासन की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।

अपूर्वा चौधरी ने थाना मधुबन बापूधाम पुलिस के खिलाफ अपनी शिकायतों को लेकर अनिश्चितकालीन आमरण अनशन किया, जो तब समाप्त हुआ जब पुलिस ने अपनी गलती स्वीकार की। यह घटना केवल एक व्यक्तिगत मामला नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक समस्या का प्रतीक है: क्या भारत में पत्रकार सुरक्षित हैं?

पुलिस प्रशासन की कार्यशैली पर गंभीर प्रश्न

अपूर्वा चौधरी ने अपने अनशन के माध्यम से पुलिस प्रशासन की कार्यशैली पर कई गंभीर सवाल उठाए। उन्होंने आरोप लगाया कि थाने के अंदर ही बदमाशों ने उन्हें धमकी दी थी कि यदि उन्होंने मुकदमा दर्ज कराया, तो उन्हें गोली मार दी जाएगी। यह धमकी कोई नई बात नहीं है; गाजियाबाद के ही मुरादनगर थाने के बाहर एक शिकायतकर्ता पर गोली चलाने और थाना टीला मोड़ के बाहर पत्रकार पंकज तोमर पर जानलेवा हमले की घटनाएँ दर्शाती हैं कि दबंगों के हौसले बुलंद हैं। ऐसा लगता है कि अपराधी न तो पुलिस से डरते हैं और न ही उन्हें अपराध करने में कोई हिचक है।

पत्रकारों पर बढ़ते हमले और चिंताजनक आंकड़े पत्रकारों पर हमलों की घटनाएँ केवल गाजियाबाद तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह एक राष्ट्रीय चिंता बन गई है। 'पत्रकारों पर हमले के विरुद्ध समिति' (CAAJ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2017 से 2022 के बीच उत्तर प्रदेश में 12 पत्रकारों की हत्या हुई और कम से कम 50 पत्रकारों पर शारीरिक हमले किए गए। ये आंकड़े बेहद चिंताजनक हैं और यह सवाल उठाते हैं कि क्या पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कदम उठाए जा रहे हैं? बिलासपुर में पत्रकार दिलीप अग्रवाल को थाना प्रभारी द्वारा दी गई धमकी और मऊ में पत्रकार नीतीश पर हुए जानलेवा हमले जैसे मामले पुलिस की निष्क्रियता और दबंगों के बढ़ते हौसलों को और स्पष्ट करते हैं।

सुरक्षा उपायों की प्रभावशीलता पर संदेह

पत्रकारों की सुरक्षा के लिए प्रेस काउंसिल द्वारा छह सदस्यीय उपसमिति का गठन किया गया है, लेकिन इसकी प्रभावशीलता पर संदेह बना हुआ है। पत्रकारों पर हमले और धमकियों के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, फिर भी कई मामलों में पुलिस कार्रवाई करने में विफल रहती है। अपूर्वा चौधरी के अनशन का पुलिस प्रशासन पर कुछ प्रभाव पड़ा, क्योंकि थाना प्रभारी ने स्वयं धरना स्थल पर जाकर जूस पिलाकर अनशन समाप्त करवाया। हालांकि, यह केवल एक प्रतीकात्मक कदम हो सकता है। असल प्रश्न यह है कि क्या इन घटनाओं से सबक लिया जाएगा और भविष्य में पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाएगी?

आगे का रास्ता: ठोस कदम और जवाबदेही

पत्रकारिता एक जोखिम भरा पेशा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पत्रकारों को असुरक्षित छोड़ दिया जाए। अपूर्वा चौधरी जैसे पत्रकारों के साहसिक कदम पुलिस और प्रशासन को उनकी जिम्मेदारी का एहसास दिलाते हैं। यह समय है कि सरकार और पुलिस प्रशासन पत्रकारों की सुरक्षा के लिए ठोस नीतियां बनाए और उनका सख्ती से पालन करे। जब तक दबंगों और अपराधियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई नहीं होगी, तब तक पत्रकारों पर हमले और धमकियां जारी रहेंगी।

अपूर्वा चौधरी का अनशन एक चेतावनी है कि सहनशक्ति की सीमा अब टूट रही है। समाज और सरकार को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि पत्रकार न केवल सुरक्षित रहें, बल्कि निडर होकर अपनी जिम्मेदारी निभा सकें। क्या हम इस महत्वपूर्ण चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हैं?



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