”दीपा !" प्रभा जी ने आवाज़ लगाई। 

"जी, मम्मी ! आप बुला रही थीं?" दीपा हाथ का काम छोड़कर आई।

"बिटिया यह तेरी सरगी और करवा चौथ के लिए नई साड़ी और सिंगार का सामान है। सुबह उठकर थोड़ा कुछ खा लियो और शाम को सुंदर सी सजियो ताकि जब तू चाँद को देखे तो मेरा बेटा इस चाँदनी को देखता रह जाए।" प्रभा जी ने एक पैकेट दीपा को थमाया।

"मम्मी....।" दीपा लजा गई।

"शरमा गई। यहाँ मेरे पास बैठ। तुझे एक बात बताती हूँ जो कभी मेरी सास ने मुझसे कही थी।" प्रभा जी बोलीं। 

"क्या मम्मी ?" दीपा की उत्सुकता बढ़ गई।

"एक बात बता, अगर तुझे ठंडी और गर्म सब्ज़ी में से एक को चुनने के लिए कहा जाए तो तू किसे चुनेगी ?" प्रभाजी ने पूछा।

"निश्चित तौर पर गर्म सब्ज़ी,मम्मी। मज़बूरीवश ठंडी सब्जी खाई जा सकती है पर पसंद तो सबको गर्म सब्ज़ी ही आती है।" दीपा हँस दी।

"बस तो ऐसे ही हम इंसान होते हैं। जब हमारे पास 

गर्मजोशी, ज़िंदादिली होती है तो अनायास ही हमारे रिश्तों में भी ताज़गी आ जाती है। जानती है, ये त्यौहार हम क्यों मनाते हैं, ताकि रिश्तों में बासीपन  न आए, एक सा जीवन जीते-जीते हम नीरस, बेज़ार से हो जाते हैं बस इसीलिए हमें अपने सभी रिश्तों एवं सामाजिक जीवन में गर्माहट लाने के लिए अपने सभी त्योहारों को गर्मजोशी से मनाना चाहिए।" प्रभा जी बोलीं ।

"पर मम्मी लोग तो त्यौहार पर होने वाली रस्मों इत्यादि का मज़ाक़----!" दीपा की उत्सुकता बढ़ रही थी।

"बेटा ! लोगों का क्या है, सबकी अपनी-अपनी सोच है। कोई पत्थर में भी भगवान देखता है और कोई भगवान में भी पत्थर।पर वह सत्ता तो है न। इसी तरह त्यौहारों को कोई माने या न माने या अपने हिसाब से माने पर वे ताज़गी, माधुर्य एवं गर्मजोशी तो देते हैं न। बस धर्म का जामा तो इन्हें इसलिए पहनाया गया है ताकि हम आस्थावान होकर इन्हें मनाते रहें।" प्रभा जी ने दीपा के सिर पर हाथ रख दिया।

कहानीकार : ऋतु अग्रवाल, मेरठ (उ.प्र.)



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