ग़ाज़ियाबाद। बृहस्पतिवार 18 मई। फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' को देखने के बाद मन काफी व्यथित हुआ। मेरा मानना है कि प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, जिसके पुत्र पुत्रियां हों। प्रत्येक यौवन की दहलीज पर चढ़ रहे किशोर किशोरी को चाहें वह सनातनी हिन्दू हो, ईसाई, सिक्ख हो या मुस्लिम हो, यह फिल्म एक बार अवश्य देखनी चाहिए। 

अपने मजहब को सर्वश्रेष्ठ बताने के लिए दूसरों के मत अभिमत का मजाक उड़ाने, मृत्यु के बाद तथाकथित दोजख की आग से बचने के लिए अपनी और दूसरों की ज़िंदगी को दोजख बना देने का मूर्खतापूर्ण कृत्य करने, धर्मांतरण जैसे नासूर को बढ़ाने के लिए विशेषकर असंख्य विधर्मी महिलाओं के जीवन को नर्क से भी बदतर बना देने, यहां तक कि मंडियों में बिकने के लिए मजबूर करने, यौन दासी बना देने, आत्मघाती हमलावर बना देने और लिपस्टिक लगाने मात्र पर हाथ काट देने जैसी अमानवीय सजाएं देने वाले समाज को आत्ममंथन करना ही होगा कि तथाकथित नियमावली के नाम पर वे दूसरों का ही नहीं वरन अपना जीवन भी नर्क बना रहे हैं। 

एक पूरा गिरोह स्लीपर सेल बनकर या फिर प्रत्यक्ष रूप से इस गुनाह में शामिल है। जो ब्रेनवाश करके केरल की निर्दोष लड़कियों को अपने प्रेमपाश में फंसाकर अगले शिकार की तलाश में निकल जाता है। सांकेतिक तौर पर ही सही, यह भी दिखाया गया है कि महिलाएं ही नहीं किशोर और किशोरियां भी इनके शिकार हैं। जिनका इस्तेमाल वे किसलिए करते होंगे, बताने की आवश्यकता नहीं है।

यह सिर्फ केरल की स्टोरी नहीं है बल्कि ऐसा भारत या दुनिया के किसी भी हिस्से में हो सकता है। जिसे परदे पर लाकर ऐसी नीचों के चेहरे से मुखौटा नोंचकर फेंक देने के लिए निर्देशक सुदीप्तो सेन और विपुल अमृतलाल शाह बधाई के पात्र हैं।

जहां तक अभिनय की बात है तो यह पूरी तरह से अदा शर्मा की फिल्म है। अन्य कलाकारों ने भी अपनी प्रतिभा के साथ न्याय किया है। मूल मलयालम की इस फिल्म में मलयालम के शब्द कहानी की तारतम्यता को बाधित नहीं करते। इसी प्रकार हिंदी और मलयालम भाषा के गाने फिल्म के प्रभाव को बढ़ाते हैं। 

एक ऐसी फिल्म, जिसे देखने के बाद मैं रात को ठीक से सो नहीं सकी। 

ऐसी फिल्में समाज को जागरूक करने का कार्य करती हैं। प्रसन्नता की बात है कि विघ्नसंतोषियों के भरसक प्रयास के बावजूद यह फिल्म परदे पर आई है और सुपरहिट जा रही है। 

मैंने और मेरे पति ने डीएलएफ मॉल नोएडा में फ़िल्म द केरला स्टोरी देखी। पूरा शो हाउसफुल था। कई लोगों को टिकट नहीं मिल पा रही थी। यह इस फिल्म की सफलता है और दर्शकों की ओर से फिल्मकारों को सीख भी है कि वे ऐसे विषय उठाएं, जिनसे समाज कुछ चिंतन करने के लिए विवश हो। अद्भुत, अप्रतिम, चिंतनपरक और बांधकर रखने वाली इस फिल्म को एक बार सिनेमा हॉल जाकर अवश्य देखें।

(लेखिका वरिष्ठ समाज सेविका हैं)

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