छठ महापर्व, जिसे ‘लोक आस्था का महापर्व’ कहा जाता है, भारतीय संस्कृति की सादगी, अनुशासन और प्रकृति के प्रति गहरी श्रद्धा का अनुपम उदाहरण है। यह पर्व सूर्य देव और उनकी बहन छठी मैया (षष्ठी देवी) को समर्पित होता है, जो स्वास्थ्य, संतान-सुख और समृद्धि की प्रतीक मानी जाती हैं।

मुख्य रूप से यह पर्व बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में अत्यंत श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। आज यह प्रवासी भारतीयों के माध्यम से लंदन, दुबई, अमेरिका, मॉरीशस, फिजी, नेपाल आदि में भी उतनी ही आस्था से मनाया जाता है, जिससे यह अब विश्वस्तरीय सांस्कृतिक पहचान बन चुका है।

सांस्कृतिक पक्ष: -

छठ पूजा भारतीय संस्कृति की सादगी, अनुशासन और आत्मसंयम का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसमें किसी भव्य मंदिर या मूर्ति की आवश्यकता नहीं होती।

छठ में कोई पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती। श्रद्धालु स्वयं ही पूजा करते हैं।

व्रती (व्रत करने वाले) चार दिनों तक कठोर नियमों का पालन करते हैं। इस व्रत में शुद्धता, संयम और आत्म-नियंत्रण सर्वोपरि होता है।

छठ पूजा का वातावरण शुद्धता, लोकगीत, प्रकृति और सामूहिकता के भाव से भरा रहता है। इसमें धर्म और प्रकृति एकाकार होते हैं — यह पर्व मानव और प्रकृति के परस्पर संबंध का जीवंत उत्सव है।

प्रसाद और पूजा सामग्री: -

छठ पूजा का प्रसाद केवल भोजन नहीं, बल्कि शुद्धता, श्रम, समर्पण और आस्था का प्रतीक है। पूजा में प्रयुक्त सामग्रियाँ सदियों से लोक परंपरा और प्राकृतिक जीवनशैली से जुड़ी हुई हैं।

छठ पूजा में डलिया (सूप), सरबी, कुरबार, और डाला/दउरा (टोकरी) जैसे पात्रों का प्रयोग होता है।

डलिया या सूप बाँस या पत्तों से बना सपाट पात्र होता है, जिसमें प्रसाद सजाया जाता है और घाट तक ले जाया जाता है।

डाला या दउरा गोल बाँस की टोकरी होती है, जिसमें पूजा की संपूर्ण सामग्री रखी जाती है।

सरबी छोटा मिट्टी का पात्र होता है, जिसमें अक्षत (चावल), ठेकुआ, खजूरी और कसार रखे जाते हैं। कुरबार बड़ा मिट्टी का पात्र होता है, जिसमें चूरा, ठेकुआ, खजूरी, कसार, चीनी के लड्डू और विविध फल रखे जाते हैं। इन पात्रों को सूर्य देव और छठी मैया के अर्घ्य में प्रयोग किया जाता है।

मुख्य प्रसाद: -

छठ पूजा के प्रमुख प्रसादों में ठेकुआ, कसार, और खजूरी का विशेष महत्व है।

ठेकुआ गेहूं के आटे, गुड़ और घी से बनाया जाता है। स्वाद और सुगंध के लिए इसमें अक्सर सौंफ, इलायची, और सूखे नारियल का बुरादा भी मिलाया जाता है। यह छठ का सबसे मुख्य प्रसाद है और इसे भक्ति, श्रम और शुद्धता का प्रतीक माना जाता है।

कसार पारंपरिक रूप से चावल के आटे, सौंफ, घी, काली मिर्च का पाउडर और गुड़/शक्कर या चीनी से बनाया जाता है। यह एक तरह का मीठा चूर्ण होता है, जिसे लड्डू के रूप में भी गूंथा जाता है। कसार की सुगंध और स्वाद इस पर्व की मिठास और पवित्रता का प्रतीक हैं, और यह बिहार व आसपास के क्षेत्रों की विशिष्ट छठ प्रसाद परंपरा का हिस्सा है।

खजूरी मैदा, सूजी, घी और सूखे मेवों से बनाई जाती है। यह भी ठेकुआ की तरह श्रद्धा और भक्ति से सूर्य देव को अर्पित की जाती है।

फल और प्राकृतिक सामग्री: -

छठ पूजा में अर्पित किए जाने वाले फल और वस्तुएँ प्रकृति की समृद्धि का प्रतीक हैं।

केले का पूरा घौंद (बिना दाग वाला), पानी वाला नारियल, गन्ने के पाँच पौधे (पत्तों सहित), सुथनी, शकरकंदी, मूली, बड़ा नींबू (टाब), सिंघाड़ा, नाशपाती, सेब, और अन्य मौसमी फल — सभी को कुरबार या डाला में सजाया जाता है।

इन वस्तुओं में उर्वरता, समृद्धि, स्वास्थ्य और शुद्धता के प्रतीक छिपे हैं। ये फल और प्राकृतिक वस्तुएँ दर्शाती हैं कि छठ केवल देव पूजा नहीं, बल्कि प्रकृति की कृपा का उत्सव भी है।

अन्य पवित्र सामग्री: -

छठ पूजा में उपयोग की जाने वाली अन्य सामग्रियों में अदरक का हरा पौधा (पत्तों सहित), पान का पत्ता और सुपारी, कच्ची हल्दी, अंकुरी (अंकुरित गेहूं या चना), दीपक, धूपबत्ती, सिंदूर, चावल (अक्षत), गंगाजल, और दूध शामिल हैं।

अंकुरी विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानी जाती है — यह अंकुरित अनाज सूर्य की ऊर्जा और धरती की जीवनदायिनी शक्ति का प्रतीक है। इसे सूप या कुरबार में रखा जाता है और अर्घ्य के समय अर्पित किया जाता है।

लोकगीतों की आत्मा: -

छठ पर्व की आत्मा उसके भोजपुरी, मगही और मैथिली लोकगीतों में बसती है। ये गीत केवल भक्ति नहीं, बल्कि भावनाओं, पारिवारिक प्रेम, और प्रकृति के प्रति आभार का प्रतीक हैं।

“उगी हे सूरज देव, अरघ के बेर बा…”

“केलवा के पात पर उगले सूरज देव…”

यह गीत सिर्फ एक प्रार्थना नहीं, बल्कि श्रद्धा, विनय और आस्था की गूंज है। इन गीतों में संतान की मंगलकामना, परिवार की खुशहाली और प्राकृतिक सौंदर्य की झलक होती है।

इन गीतों में सूर्य की महिमा, छठी मैया की आराधना और संतान-सुख की कामना झलकती है। ये लोकगीत पीढ़ी-दर-पीढ़ी श्रद्धा, संस्कृति और लोकसंस्कृति की आत्मा को आगे बढ़ाते हैं।

प्रकृति पूजा का रूप: -

छठ पर्व केवल सूर्य की पूजा तक सीमित नहीं है। इसमें जल (नदी, तालाब), वायु, मिट्टी और संपूर्ण प्रकृति की आराधना होती है। व्रती नदी या तालाब के किनारे घंटों खड़े रहकर अर्घ्य देते हैं, जो प्रकृति के प्रति सम्मान और समर्पण का जीवंत रूप है।

पौराणिक और ऐतिहासिक पक्ष: 

- छठ व्रत की जड़ें वैदिक काल तक जाती हैं।

- ऋग्वेद में सूर्य देव को “सर्वरोगनिवारक” कहा गया है और सूर्य की किरणों को जीवनदायी बताया गया है।

- इसी कारण छठ व्रत को सूर्योपासना की सबसे प्राचीन परंपरा माना जाता है।

महाभारत काल में जब पांडव अपना सब कुछ जुए में हार चुके थे, तब द्रौपदी ने ऋषि धौम्य की सलाह पर छठ व्रत किया था, जिससे पांडवों को पुनः राज्य प्राप्त हुआ।

महाभारत के महान योद्धा सूर्यपुत्र कर्ण प्रतिदिन कमर तक जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। यह अनुशासन और सूर्य उपासना की जीवंत परंपरा को दर्शाता है, जिसे छठ व्रत ने आगे बढ़ाया।

राजा प्रियंवद की कथा: - एक पौराणिक कथा के अनुसार, राजा प्रियंवद को संतान नहीं थी। महर्षि कश्यप की सलाह पर उन्होंने यज्ञ किया, जिससे मरा हुआ पुत्र उत्पन्न हुआ। तब देवसेना (सृष्टि की मूल प्रवृत्ति का छठा अंश) प्रकट हुईं और राजा को छठ व्रत करने का निर्देश दिया। इससे उन्हें स्वस्थ पुत्र की प्राप्ति हुई। तब से छठी मैया को संतान और आरोग्य की देवी के रूप में पूजा जाता है।

ठढ़िया की परंपरा और पुरुष व्रतियों की सहभागिता

छठ पूजा में केवल महिलाएँ ही नहीं, बल्कि पुरुष भी समान श्रद्धा और कठोर नियमों के साथ व्रत रखते हैं। वे अपने परिवार की सुख-समृद्धि और संतान के कल्याण के लिए जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं।

यह परंपरा महाभारत काल से चली आ रही है, जब सूर्यपुत्र कर्ण प्रतिदिन नदी में खड़े होकर अपने पिता सूर्य देव की उपासना करते थे।

पानी में खड़े होकर पूजा करने का महत्व (ठढ़िया): -

“ठढ़िया” एक स्थानीय शब्द है, जो छठ पूजा के दौरान जल में खड़े होकर सूर्य की उपासना करने की पवित्र क्रिया को दर्शाता है। यह व्रती की श्रद्धा, समर्पण और धैर्य का प्रतीक है।

पौराणिक मान्यता: -

सूर्यपुत्र कर्ण के आदर्श का अनुसरण करते हुए व्रती कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। यह उनकी भक्ति और अनुशासन का प्रतीक है।

वैज्ञानिक मान्यता: -

पानी में खड़े रहने से शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।

सुबह और शाम के समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें शरीर के लिए अत्यंत लाभकारी होती हैं। पानी इन किरणों को परावर्तित कर शरीर को संतुलित ऊर्जा और विटामिन D प्रदान करता है।

आत्म-शुद्धि और मनोबल: -

पानी में खड़े होकर ध्यान और प्रार्थना करने से शरीर और मन दोनों शुद्ध होते हैं। यह विनम्रता, एकाग्रता और आत्म-समर्पण का अभ्यास है।

आज के समय में पुरुष व्रती भी महिलाओँ की तरह नए वस्त्र (जैसे धोती) पहनकर सभी परंपराएँ निभाते हैं :

प्रसाद बनाना, घाट सजाना, जल में खड़े होकर अर्घ्य देना। यह सब समान श्रद्धा से करते हैं। इससे छठ अब केवल “महिला पर्व” नहीं, बल्कि समान भागीदारी का पर्व बन चुका है।

सामाजिक पक्ष: -

छठ महापर्व समाज में समानता, सामूहिकता और सहयोग का सशक्त उदाहरण है। इस पर्व में जाति, वर्ग, का कोई भेद नहीं होता। सभी लोग घाटों की सफाई, निर्माण / सजावट, और प्रसाद वितरण में एक साथ भाग लेते हैं।

समानता का प्रतीक इस पर्व में राजा और रंक, अमीर और गरीब सभी एक पंक्ति में नदी या तालाब के घाट पर खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। यह सामाजिक बराबरी और आध्यात्मिक लोकतंत्र का प्रतीक है।

यह पर्व नारी शक्ति का भी महोत्सव है। व्रती महिलाएँ कठिन उपवास रखती हैं, प्रसाद बनाती हैं, जल में खड़ी होकर सूर्य को अर्घ्य देती हैं — यह उनकी आत्मशक्ति, तपस्या और श्रद्धा का प्रतीक है।

अब पुरुष व्रती भी इस परंपरा में समान रूप से सहभागी बनकर परिवार, समाज और संस्कृति की एकता को सशक्त बना रहे हैं।

वैज्ञानिक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण: -

छठ केवल धार्मिक आस्था का पर्व नहीं, बल्कि वैज्ञानिक और पर्यावरणीय संतुलन का भी प्रतीक है।

सूर्य स्नान और विटामिन-D : कार्तिक शुक्ल षष्ठी और सप्तमी के समय सूर्य की किरणें कोमल होती हैं। इस अवधि में सूर्य को अर्घ्य देने से शरीर को विटामिन-D मिलता है, जो स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है।

डिटॉक्सीफिकेशन और उपवास : नहाय-खाय, खरना, निर्जला उपवास और अर्घ्य की प्रक्रिया शरीर को विषमुक्त करती है और मानसिक शुद्धता लाती है।

जैविक घड़ी का संतुलन : उगते और डूबते सूर्य को अर्घ्य देना शरीर की बायोलॉजिकल क्लॉक को संतुलित रखता है।

पर्यावरण संरक्षण : इस पर्व में प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग, नदियों, घाटों, तालाबों की स्वच्छता, और प्लास्टिक-मुक्त पूजा और जैविक सामग्री के उपयोग का आग्रह पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक जागरूक पहल एवं प्रकृति संरक्षण की गूंज है।

मानसिक शांति और एकाग्रता : छठ व्रत का वातावरण— भक्ति संगीत, ध्यान, सामूहिकता और प्रकृति के बीच पूजा — व्यक्ति को मानसिक रूप से शांत और भावनात्मक रूप से स्थिर बनाता है। यह तनाव कम करने और आंतरिक संतुलन लाने में मदद करता है।

चार दिवसीय परंपरा: -

नहाय-खाय (पहला दिन) : पवित्र स्नान और सात्विक भोजन से आरंभ। सात्विक भोजन जैसे कद्दू, दाल और चावल का सेवन करते हैं। इस दिन प्याज-लहसुन का परहेज किया जाता है और घर की शुद्धता का खास ध्यान रखा जाता है। 

खरना (दूसरा दिन) : व्रती दिन भर उपवास रखने के बाद शाम को गुड़ की खीर और रोटी जैसे प्रसाद ग्रहण करके अपना उपवास तोड़ते हैं। इसके बाद 36 घंटे का निर्जला व्रत शुरू होता है।

संध्या अर्घ्य (तीसरा दिन) : डूबते सूर्य को अर्घ्य । व्रती सूर्यास्त के समय नदी के घाट पर जाकर डूबते सूर्य को अर्घ्य अर्पण करते हैं।

उषा अर्घ्य और पारण (चौथा दिन) : अगली सुबह उगते सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत की मुख्य पूजा सम्पन्न होती है। यह क्षण अत्यंत भावनात्मक और आध्यात्मिक होता है, क्योंकि इसे “सूर्योदय की नई ऊर्जा और जीवन के नवप्रारंभ” का प्रतीक माना जाता है।

अर्घ्य के बाद व्रती घर लौटकर पारण करते हैं — यानी व्रत खोलते हैं। पारण में जल, चावल, अदरक, प्रसाद और फल ग्रहण किए जाते हैं। यह केवल भोजन ग्रहण करना नहीं, बल्कि व्रत की पूर्णता और आत्मशुद्धि का आध्यात्मिक समापन है।

इस दिन व्रती और परिवारजन एक-दूसरे को प्रसाद बांटकर शुभकामनाएँ देते हैं और छठी मैया से परिवार के सुख-समृद्धि का आशीर्वाद मांगते हैं।

निष्कर्ष: -

छठ महापर्व केवल पूजा-अर्चना का पर्व नहीं, बल्कि यह मानव, प्रकृति और देवत्व के गहरे संबंध का प्रतीक है। यह सिखाता है कि सच्ची भक्ति भव्यता में नहीं, बल्कि सादगी, अनुशासन और आत्म-नियंत्रण में निहित है।

छठ पर्व की हर प्रक्रिया :

- नहाय-खाय की शुद्धता से लेकर ठढ़िया की श्रद्धा तक, और उषा अर्घ्य की रोशनी से लेकर पारण के संतोष तक 

मानव जीवन के संतुलन, शुद्धि और पुनर्जन्म का प्रतीक है।

- यह पर्व हमें याद दिलाता है कि प्रकृति हमारी पूजा की पात्र ही नहीं, बल्कि हमारी जीवनसंगिनी है।

- छठ व्रत के माध्यम से समाज यह संदेश देता है कि

“आस्था तब पूर्ण होती है जब वह प्रकृति, परिवार और समाज के साथ सामंजस्य स्थापित करे।”

- सूप में सजे ठेकुए, घाट पर खिले दीपक, जल में खड़े व्रती और डूबते उगते सूर्य को दिए गए अर्घ्य तक।

सब मिलकर भारतीय संस्कृति के उस आदर्श को जीवित रखते हैं जिसमें भक्ति और विज्ञान, नारी शक्ति और पुरुष तप, आस्था और पर्यावरण — सभी एक साथ प्रवाहित होते हैं।

छठ पर्व इसलिए अनादि काल से न केवल लोक आस्था का पर्व, बल्कि जीवन दर्शन का उत्सव भी कहलाता है। यह पर्व भारतीय संस्कृति, पर्यावरण-सम्मान और सामाजिक एकता का जीवंत प्रतीक है।

लेखक: -

अखिलेश चौधरी (इंदिरापुरम)

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