यदि आप भारत के सांस्कृतिक इतिहास पर विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जब भी भारत में बाहर से किसी नई विचारधारा का प्रवेश हुआ, तो अस्थायी मतभेद पैदा हो गए, लेकिन इसके साथ ही भारतीय सोच ने अपनी बहुलता में एकता बनाने की प्रक्रिया शुरू की और उसके बाद कुछ समय की अवधि में ही सभ्यता के विभिन्न तत्वों ने एक संयोजन बनाया और एक सामान्य सभ्यता की नींव रख दी।

साझी सांस्कृतिक विरासत के कारण धार्मिक सहिष्णुता के प्रकाश के प्रसार के बारे में डॉ सैयद मुहम्मद अकील लिखते है "किसी ऐतिहासिक काल की विशिष्ट संस्कृति की भावनात्मक सद्भाव और एकता के बिना किसी राष्ट्र या सभ्यता का अस्तित्व संभव नहीं है।" इस बात को ध्यान में रखते हुए भारत की सांस्कृतिक विरासत का अध्ययन करते समय एक विशेष समय में सभी सांस्कृतिक परिवर्तनों का एक ही परिणाम होता था। राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय एकता, भावनात्मक समरसता, हम जो चाहें उसे कह सकते हैं, लेकिन विभिन्न युगों में लोगों की समरसता, एक साथ अपनी समस्याओं का समाधान खोजने के लिए, वर्गीय जीवन या राजनीतिक दबाव से मुक्त होने के लिए भावनात्मक और सामाजिक एकजुटता की आवश्यकता पड़ती है।"

जब इस सर्वसम्मत का दायरा संकुचित हो जाता है, और केवल संप्रदायों तक ही सीमित हो जाता है, तो संप्रदायवाद और पूर्वाग्रह भी यहीं से उत्पन्न हो सकते हैं, और यदि यह चौड़ा हो जाता है और पृथ्वी के एक क्षेत्र को कवर करता है, तो एक भौगोलिक सीमा के भीतर रहने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व होने लगता है, जिसे संगीत, चित्रकला, स्थापत्य, साहित्य, पहनावे, रीति-रिवाजों, विचार और दृष्टि के उतार-चढ़ाव में देखा जा सकता है। भारत में हड़प्पा मोहन जोदड़ो से पाटलिपुत्र अजंता एलोरा, खजुराहो, ताजमहल, लाल किला, नानक, कबीर, रैदास, जायसी, मोइनुद्दीन चिश्ती, फरीद गंज शकर, परान नाथ, भक्ति और प्रेम मार्ग, अकबर जहांगीर खुसरो और दारा शिकोह में देखा जा सकते है।

सामान्य भारतीय सभ्यता अभी भी बहती हुई नदी है जिसमें दो धाराएँ आपस में मिल गई हैं। इसमें हिंदू सभ्यता की एक धारा है जो आर्यों के आगमन के साथ मध्य एशिया के प्रभाव को लेकर आई और यहां की द्रविड़ सभ्यता में विलय कर एक पूर्ण सभ्यता बन गई। दूसरी धारा इस्लामी सभ्यता की है, जो भारत में 8वीं शताब्दी में अरबी, ईरानी और तुर्की प्रभाव के साथ प्रवाहित होने लगी थी, लेकिन 11वीं शताब्दी के अंत में इसमें कुछ तेजी आई और पूरी ताकत के साथ उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ना शुरू हो गया। दानों धाराओं के मिलन से जो सभ्यता विकसित हुई, उसे कभी इंडो-इस्लामिक सभ्यता कभी इंडो-ईरानी, कभी गंगा-जमुनी और कभी संयुक्त सभ्यता कहा गया। आप इसे जो भी कहें, यह स्पष्ट है कि दोनों सभ्यताओं ने एक-दूसरे को अत्यधिक प्रभावित किया।

"समाज" का शाब्दिक अर्थ समूह संघ या सभा है, जिसका अर्थ है एक साथ रहना। ऐसे मानव समूह या समाज के लिए अरबी में मुआशरा और अंग्रेजी में सोसाईटी जैसे शब्द का प्रयोग किया जाता है। चूंकि सामाजिक जीवन व्यक्तियों द्वारा अलंकृत होता है। इसलिए व्यक्तिगत हितों में लोगों की साझा रुचि की भावना समाज के संगठन के पीछे प्रेरक शक्ति बन जाती है और व्यक्तिगत और सामूहिक हितों के बीच संघर्ष सामाजिक समस्याओं का कारण बन जाता है। स्कूलों में हिंदू और मुस्लिम छात्रों को संयुक्त रूप से शिक्षित किया जाता है सह-शिक्षा दोनों को बचपन से ही एक सामान्य सामाजिक पैटर्न अपनाने के लिए प्रोत्साहित करती है। हिंदू-मुस्लिम जनता की दरगाहों और मठों में आपसी भक्ति की भावना ने सूफियों और पीरों को बिना भेदभाव के अपनाने के लिए प्रेरित किया। इस प्रक्रिया ने दोनों संप्रदायों के लोगों को एक-दूसरे के करीब ला दिया ।

त्योहारों और अन्य सामाजिक आयोजनों में साम्प्रदायिक सौहार्द और प्रेम व भाईचारे की जीती-जागती मिसालें मिलती है, उसी तरह सूफियों की दरगाहों में भी मिलती हैं। हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर श्रद्धालुओं की भीड़ में हिंदू, मुस्लिम और सिख सब ही नजर आते हैं, राम और रहीम के सांसारिक भेद मिट जाते हैं। हजरत निजामुद्दीन के मजार पर ऐसे नजारे हर बार देखने को मिलते हैं। गुलाब की खुशबू से महकती हजरत निजामुद्दीन की मजार एक अनोखा नजारा पेश करती है। दीवाली हो या बसंत या फिर रमजान हजरत निजामुद्दीन दरगाह की शान का कोई जवाब नहीं है और इस दरगाह से दिया जाने वाला प्यार और भाईचारे का संदेश बेजोड़ है। यह केवल हजरत निजामुद्दीन की दरगाह में जाने के बारे में नहीं है बल्कि उनकी शिक्षाओं के प्रकाश में रहने के बारे में भी है।

इसमें कोई शक नहीं कि आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में जब हर कोई दुनियावी जरूरतों को पूरा करने के लिए दिन रात भागदौड़ कर रहा है तो दिल्ली के व्यस्त, बड़े और चहल-पहल भरे इलाके में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर एक राहत महसूस होती है। मौन और भक्ति अध्यात्म के प्रमाण है। हजरत निजामुद्दीन की दरगाह के नजारे देखने के लायक होते हैं, जहां दरगाह में मुसलमान हाथ उठाकर इबादत करते नजर आते हैं, वहीं हिंदू धर्म के लोग हाथ जोड़कर ख्वाजा निजामुद्दीन से अपनी आस्था का इजहार करते नजर आते हैं। निःसंदेह दरगाह के ऐसे नजारे देखकर लगता है कि ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया सिर्फ मुसलमान के ही नहीं, सबके ख्वाजा है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उपसंगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के प्रमुख इंद्रेश कुमार ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए हैं। कुछ समय पहले उन्होंने दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाकर चादर चढ़ाई थी, इस मौके पर इंद्रेश कुमार ने हजरत निजामुद्दीन औलिया के 719वें उर्स और हिंदू धर्म के त्योहार दिवाली के मौके पर मिट्टी के 719 दीपक जलाए, दरगाह के उपासकों में से एक सैयद अफसर अली निजामी ने इंद्रेश कुमार की दस्तर बन्दी की। इस अवसर पर इन्द्रेश कुमार ने उपस्थित पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा कि भारत त्यौहारों और मेलों का देश है, इनके द्वारा लोगों में एकता और सहमति बनती है और भाईचारा मजबूत होता है। उन्होंने बताया कि उन्होंने देश में शांति, एकता और समृद्धि के लिए प्रार्थना की है। उन्होंने दीपावली पर्व के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह विभिन्न संप्रदायों के बीच मेल-मिलाप स्थापित करता है और नफरत व पूर्वाग्रह को समाप्त करता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि हम देश में शांति, एकता और भाईचारा चाहते हैं।

अजमेर स्थित हजरत ख्वाजा मोइनुदीन चिश्ती की दरगाह दुनिया भर में मशहूर है। यहां हर साल वार्षिक उर्स का आयोजन होता है, जिसमें हिंदू श्रद्धालुओं की संख्या मुसलमानों की संख्या से कम नहीं होती है। दरगाह पर पहुंचते ही हिंदू-मुस्लिम घुलमिल जाते हैं और वहां पहुंच कर कोई हिंदू या मुसलमान नहीं होता, हर कोई सिर्फ इंसान होता है। यहां हिंदू-मुस्लिम एकता और एकजुटता की अनूठी मिसालें देखी जा सकती है। यह एक ऐसा तीर्थ है जहां न केवल धार्मिक लोग आते हैं, बल्कि फिल्म, औद्योगिक और राजनीतिक जगत की महत्वपूर्ण हस्तियां भी यहां आती रहती हैं। हाजी वारिस अली शाह की दरगाह भी हिंदू-मुस्लिम एकता की बेहतरीन मिसाल है। यह दरगाह उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के देवा कस्बे में स्थित है। यहां का देवी मेला व उसे पूरे विश्व में प्रसिद्ध है जो एक महीने तक चलता है। इसके लिए राजधानी लखनऊ से विशेष बसें चलाई जाती हैं और पूरे भारत से व्यापारी भी अपनी दुकानों के साथ यहां आते हैं, जहां बड़ी संख्या में हिंदू-मुस्लिम खरीदारी करने और दरगाह वारसी घूमने के लिए दूर-दूर से आते हैं। वास्तव में, धर्मों के बीच सद्भाव और हिंदू-मुस्लिम एकता हमारे देश की एक विशेषता है जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। समय-समय पर उठने वाली कड़वाहट इन जड़ों को कमजोर नहीं कर सकती। इसी एकता और एकजुटता के बल पर आज देश आगे बढ़ रहा है।

आलेख : तहसीर अहमद

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