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| शक्ति वर्मा जी, रानीखेत (उत्तराखंड) |
कितना सुहाना था सावन जब मां के आंगन में झूले थे
सावन की ठंडी फुहारों के संग सखियों के मेले थे।
सुबह से लेकर शाम तलक हम कतार में घूमा करते,
कभी किसी के कभी किसी के घर जा कर झूला करते।
कोई बंदिश ना कोई डर था सबका घर अपना सा घर था
संगीता के घर आलू की चाट, प्रीति के घर छोलों का स्वाद,
और मेरे घर की मत पूछो उसमें घेवर बहुत था खास।
बारिश की बौछारों के संग आंगन में हम झूला करते ,
झूले की खातिर मीठे झगड़े बहनों में हो जाया करते
तेरी बारी मेरी बारी एक एक करके झूला करते ,
आस पड़ोस के कुछ बच्चे भी हम संग झूले पर चढ़ते
झूले पर आ आ कर झूठी मूटी ताल मिलाकर
अपनी मल्हारें गाते ज़ोर ज़ोर से चिल्ला चिल्लाकर
अब परदेस में आन बसे हम, न वो झूले न वो आंगन
नहीं रहे सखियों के मेले ना बच्चों से मन पावन।
अब फिर से जी करता है ,पीछे मुड़ जाऊं
वही पुराना झूला और साथ में बचपन लाऊं।
पाऊं वही सखियां पुरानी लिख दूं फिर एक नई कहानी


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