नहीं होती उनके कदमों के लिए पर्याप्त जमीं
इस जहां के लोगों के पास
उसके पैरों के लिए मुफीद रास्ते
भरे होते है कितने भंवरों से
उनके चारों ओर खुला आसमां
दरअसल होता बंद दरवाजा
जो खुलता सदियों में चंद पल
उनके परों की परवाज़ पर
होती है एक अलिखित नियमावली
एक अदृश्य परिधि घेरे रखती है उन्हें
जो होती लक्ष्मण रेखा उनकी
एक ड़ोर चलती है सपनों के समानांतर
जो कसती गाहे- बगाहे ख्वाहिशों की गर्दन
उनके पैरों, उनके परों,उनके सपनों
यहाँ तक कि उनकी नज़रों की भी
तय होती है सीमा रेखा
नज़र उनकी नहीं जाती क्षितिज तक
उन्हें फैलानी हैं अपनी बाहें
एक उंगली की सीमा से पहले तक
उनकी जुल्फों के गिर्द खिंचे होते
कितने महीन दायरे
उनकी शरारतें, उनकी बदमाशियां
उनकी बदगुमानियां रहती हैं मोहताज़
उन चंद लम्हों की
जिनमें खोकर पा जाएं वो खुद को
उन्हें सूंघना भर होता है हवा का बहाव
मगर उगाना होता है पीठ पर पहाड़
बोनसाई सी होती हैं स्त्रियां..
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