नई दिल्ली : अमित श्रीवास्तव। शनिवार 17 जून। स्पष्ट है कि विधर्मी सदैव हिंदू प्रतीकों के प्रति अपनी घृणा का प्रदर्शन करेंगे ही, किंतु उन्हें रोकने के लिए बनाई संस्थाएं क्या कर रही हैं? 

फ़िल्म आदिपुरुष में दिखाए गए हिंदू विरोधी प्रलाप हिंदी सिनेमा में नया नहीं है। किंतु ऐसे संक्रमण फैलाने वाले वैचारिक कीड़ों को रोकने के लिए बनाई गई संस्था फ़िल्म सेंसर बोर्ड आखिर कर क्या रही है? 

फ़िल्म सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी क्या ये कह सकते हैं कि उन्हें कुबेर के पुष्पक विमान और चमगादड़ में कोई अंतर नहीं लगता? 

क्या लेखक प्रसून जोशी यह कह सकते हैं कि  मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के भक्त श्री हनुमान की भाषा में किसी असुर के पिता के लिए भी बाप, तेरी जली न, जैसे शब्द अपना स्थान रखते हैं?

प्रश्न कई हैं किंतु किनसे किया जाए ये स्पष्ट नहीं है। 

किसी मुंतशिर से श्रीराम व रामायण की भाषायी गरिमा के बारे प्रश्न करना 800 वर्षों के सभ्यता की संरक्षण के संघर्षों को जान कर भी गंगा जमुनी की बाढ़ में डूबने जैसा होगा। किंतु यह प्रश्न उन माननीयों से तो किया ही जा सकता है जो विगत कई वर्षों से 100 करोड़ हिंदुओं की केवल और केवल एक मांग को अनसुना कर प्रसून जोशी जैसे परग्रह जीवियों को फ़िल्म सेंसर बोर्ड के शीर्ष पद पर बिठा देते हैं। जिन्हें भारत की आत्मा रामायण के पात्र, चरित्र, भाषा, प्रसंग एवं गुरुत्व के बारे में ही ज्ञात न हो। 

विचारधारा व सरकार के बीच एक अंतर होता है। किंतु यह अंतर यदि खाई बनने लगे और खाई इतनी गहरी व चौड़ी होती जाए कि इस ओर के 100 लोगों का क्रंदन  उस ओर के आमोद प्रमोद में डूबे माननीयों तक न पहुंच पाए तो यह क्रंदन कब विप्लव में बदल जाता है ये ज्ञात ही नहीं होता।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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