नई दिल्ली : पुनीत माथुर। आज पूरे देश में महिलाओं, खासतौर पर नन्हीं बच्चियों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं आए दिन हो रही हैं। ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़-सुन कर मन व्यथित हो जाता है। ऐसे हैवानो पर अत्यधिक गुस्सा भी आता है साथ ही डर और असुरक्षा की भावना भी जागती है।

समाज के हालातों से कवि व लेखक भी अछूते नहीं और इन घटनाओं पर भी आजकल खूब लिखा जा रहा है।

आज के साहित्य मंथन में प्रस्तुत है झुंझनूं (राजस्थान) की कवियत्री, अध्यापिका व समाजसेवी सुमन राठौड़ की एक मार्मिक रचना 'बेटी की चीख' -
बेटी की चीख

वो मां -बाप की दुलारी थी,
वो घर-आंगन की चहक थी,
वो नाजुक सी मां भारती की प्यारी सी बेटी थी।

एक दिन जब वो घर से निकली,
सहसा पड़ी नजर उस पर हैवानों की,
इंसानियत को कर दिया तार-तार उन दरिंदों ने,
निर्वस्त्र किया जब मां भारती की नाज़ुक सी बेटी को।

बन गई वो नाजुक सी कली शैतानों के हवस की शिकार,
वो तड़पती रही,
वो चीखती रही,
अंत समय वो लाश बन गई।

हर तरफ गुंज उठी उसकी आत्मा की चीख,
अरे ओ हैवानों,
ये बलात्कार मेरा नहीं ,
मां भारती का हुआ है,
ओ देश के रखवालों ,
ओ अंधे कानून के रखवालों,
अब तो तुम ऐसा कानून बना डालो,
अब तो बीच चौराहे खड़ा करके दरिंदों को जला डालो।

दिला न पाओ तुम इंसाफ मुझे,
सड जाने देना मेरे मृत शरीर को,
जला तो उन भेड़ियों ने दिया मुझे,
अब तुम इस राख को क्या खाक जलाओगे ?

पत्थर भी अश्क बहाने लगा,
घायल मां भारती का खून खोल उठा,
मां बेटी की लाश गोद में लिए चीख उठी,
"आखिर कब होगी मेरी बेटियां सुरक्षित।"
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