नई दिल्ली : पुनीत माथुर। बढ़ती उम्र के साथ एक स्त्री की बदलती हुई पारिवारिक स्थिति को दर्शाती ममता चौधरी की रचना 'उसे बीत जाना चाहिए' हर स्त्री के मन की बात है। मुझे विश्वास है कि यह रचना आपको अवश्य पसंद आएगी।

उसे बीत जाना चाहिए

वह घड़ी के काँटो पर अटका
वो वक़्त है शायद
जिसे न कभी विराम लेना था

घिस जानी थी जिसकी एड़ियां खुरदुरे सफर को तय करते करते
उसे रहना था हर वक़्त तत्पर
एज अ हेल्पिंग हैंड

उसके खातों में जमा पूंजी थी सिर्फ शिकायतों की
उसे कोई अधिकार नही था
रुसवा या खफ़ा होने का

उसे होना था सिर्फ मनाने की कला का माहिर
सबके लिए समय था उसकी बन्द मुट्ठी में
सिवाय खुद के

समझदारी का ठप्पा भी क्या-क्या कराता है न
वो खुद को समझे न समझे बाकियों को समझना जिम्मेदारी है

क्यूंकि समझदारी की ठेकेदारी है उसकी
वो भले ही कड़वे घूंट पिए
मगर उसकी जबाँ पर
मिठास अनिवार्य है

उसका तीखापन, कड़वापन
नहीं सह पाता है उसका कोई अपना
उसको कड़वी नजरों का सामना करना होता है आजकल
क्योंकि नही रहा वो पहले सा समर्थ, उदारमना

बात-बात पर उसका खुरदुरापन छू जाता है उसके अपनो की रगों को
जिस से जख्मी हो जाते है वे
और रिसकर रीतने लगता है उनका प्रेम

वह सहमने लगी है अब
खुद की सांसो की रफ्तार से
अब डरती है अपनी ही धड़कनों  की आवाजाही से

चुप रहने की तरकीबें सीखने की कोशिश करती है आजकल
अपनी खामोशियों की आवाज़ को भी करती है अनसुना
वह नही देखती आईना
कहीं उसकी आंखें चुरा न ले नजर उसी से

उसे बीत जाना चाहिए शायद
बीत गए वक्त के साथ। 
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