हमारे संविधान में स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया है। सरकार बीच-बीच में लोक-लुभावनी घोषणाएं भी करती रहती है। इसके बावजूद देश का नागरिक स्वास्थ्य को लेकर सर्वाधिक प्रताड़ित है। तमाम सरकारी अस्पतालों की सेहत ठीक नहीं लगती। गरीबों के लिए जो सरकारी अस्पताल खोले गए हैं, उनमें से अधिकतर बीमार दिखते हैं। कहीं डॉक्टर नहीं मिलते तो कहीं विशेषज्ञ नहीं होते। भीड़ में जब तक मरीज डॉक्टर तक पहुंचता है, उनका देखने का समय खत्म हो चुका होता है। डाक्टर मिल भी जाते हैं तो दवा नहीं उपलब्ध होती। दवा होगी तो डॉक्टर साहब नहीं होते, बल्कि उनके स्थान पर कोई नर्स अथवा वार्डब्वाय काम कर रहा होता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं भारत अमृत काल में है। लेकिन 70 दशक बाद के हालात बताते हैं कि अस्पतालों में आज भी मरीजों की लंबी-लंबी कतारें लगती हैं। बहुत कुछ ऑनलाइन हो चुका है, फिर भी एम्स में ऑपरेशन के लिए तीन महीने बाद की डेट मिलती है। चिकित्सक अनुभवी और बड़े साहब के नाम से विख्यात हैं पर मरीज की नब्ज देखकर कुछ नहीं बताते। कहते हैं, ‘पहले टेस्ट कराओ फिर इलाज शुरू करेंगे।’ मतलब समझ गए न आप, सबकुछ जांच और टेस्ट रिपोर्ट पर निर्भर है। कहने को सरकारी अस्पताल है लेकिन पूरा भ्रष्टाचार है। परीक्षण या डाक्टर की फीस का कोई रेट फिक्स नहीं है। जितनी मर्जी होती है, मरीज से डॉक्टर वसूल लेता है। शायद इसीलिए अल्ट्रासाउंड की बात छोड़िए, सरकारी अस्पतालों में एक्स-रे मशीन तक खराब मिलती हैं।
डॉक्टरों की पैथोलॉजी और केमिस्ट के साथ पूरी साठ-गांठ होती है। डाक्टर दवा वही लिखता है जिसे लिखने के लिए दवा कंपनियां चिकित्सकों को महंगे तोहफे देती हैं। वह दवा अस्पताल में नहीं मिलेगी और बाहर से ली जाएगी तो केमिस्ट का बिल मरीज कर्ज लाकर चुकाए या घर-द्वार बेचे, साहब के कमीशन का एक हिस्सा पक्का रहता है। भारतीय कानून में यह अपराध है लेकिन कुछ डॉक्टरों को कोई फर्क नहीं पड़ता। यहां तक कि सरकार की आयुष्मान योजना के तहत भी भ्रष्टाचार हो रहा है। कुछेक अस्पताल तो खूब चांदी काट रहे हैं।
लेकिन हम यहां सरकारी अस्पतालों की बात कर रहे हैं। जिन गरीबों के पास आयुष्मान कार्ड नहीं है, उनका मर्ज लाइलाज होता जा रहा है। गांव-देहात से शहर आकर बड़े अस्पतालों में इलाज कराने वाले मध्यम श्रेणी के लोगों की जमीन-जायदाद बिक जाती है। सरकारी डाक्टरों को अगर गांव-देहात में तैनाती दी जाती है तो वे कतई जाने को राजी नहीं होते। शहर की कमीशनखोरी उनके मुंह लग चुकी होती है। कई डॉक्टर तो नौकरी छोड़ने तक की धमकी दे देते हैं। हैरानी तो इस बात की है कि सरकार के पास भी इसका कोई बहुत अच्छा विकल्प नहीं है। वह चाहते हुए भी नफरमानी करने वाले डॉक्टर के खिलाफ कोई कार्यवाही शायद ही करती हो। अगर करे तो सामने सवाल खड़ा होता है- दूसरा डाक्टर कहां से आएगा?
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) के अनुसार, देश में डॉक्टर की जनसंख्या अनुपात 1:834 है। सरल शब्दों में कहें तो 834 मरीजों पर एक डॉक्टर और 476 लोगों पर केवल 1 नर्स है। ऐसे में स्वास्थ्य सेवाएं प्रभावित होनी लाजिमी हैं। यही कारण है कि जांच में सरकारी स्तर पर दर निर्धारण का अधिकार जिला स्वास्थ्य अधिकारी को होता है फिर भी देश के अधिकांश जिलों में वर्षों से नई दरें लागू नहीं हुई हैं। इसके अलावा महंगी शिक्षा और निजी चिकित्सा शिक्षा संस्थानों की अनैतिक वसूली का चक्रव्यूह भी इन स्थितियों के लिए जिम्मेदार है। कई बार तो चिकित्सा शिक्षा में प्रवेश को लेकर भी अनियमितताएं बरती जाती हैं। ऐसे में जब एक व्यक्ति डॉक्टर बनने के लिए लाखों रुपये खर्च कर चुका होता है तो महंगाई के इस युग में डॉक्टर बनने के बाद उससे सामाजिक होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? सरकार को अस्पतालों की सेहत में सुधार लाना है और देश के आम नागरिक के आर्थिक व सामाजिक हितों की रक्षा करनी है, तो उसे पूरे चिकित्सा तंत्र में बदलाव लाना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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