एक ग़ज़ल... 


क़ाबू में हैं नहीं अभी जज़्बात क्या करूँ, 

जब साथ ही ज़ुबाँ न दे तो बात क्या करूं.


दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई, 

फिर बार-बार तुमसे सवालात क्या करूँ.


ख़्वाबों में रोज़ ही तो बुलाता हूँ मैं तुम्हें,

यूँ रोज़-रोज़ तुमसे मुलाक़ात क्या करुँ.


फ़ुरसत नहीं है मुझको कि कुछ और सोच लूँ,

तेरा ख़याल रहता है दिन रात क्या करूँ.


कोशिश तो कर रहा हूँ कि दिल को मिले सुकूँ,

होते न खत्म दर्द के लम्हात क्या करूँ.


इस साल भी ये मौसम है पिछले साल जैसा,

अश्क़ों की रोज़ हो रही बरसात क्या करूँ.


रिश्तों के बोझ ढोते हुए थक चुका बहुत,

है आखिरी सिरा तो शुरुआत क्या करुँ।


©पुनीत कुमार माथुर, गाज़ियाबाद

 

Share To:

Post A Comment: